Blog: ..जिंदगी के नशे में.……
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 dayanand arya
मैं नहीं चाहूँगा
की दिल्ली मेरे रग रग में बहे
जरूरत बनकर।
मैं चाहूँगा की जैसे
यादों की खुसबू बनकर
मौके बेमौके महकते हैं
देहरादून और नागपुर।
या फिर दोस्तों के निश्चिन्त ठहाकों की तरह
जैसे कानों में कभी कभी गूंज जाता है हैदराबाद।
वैसे ही किसी भूले बिसरे गीत की तरह ... Read more |
 dayanand arya
"क्या दादा आप इस 4G के टाइम में अभी भी 2G गड्डी हाँक रहे हो ।"
"देखो दिल के मामले में सहूलियत से काम लेना चाहिए । प्यार को धीरे धीरे पनपने दो । धीमे आंच पर पकने दो । हर लम्हे को महसूस करो ।"
"अच्छा ! तो पहले आप decide कर लो की प्यार करना इम्पोर्टेन्ट है की महसूस करना । क्योंकि महसूस क... Read more |
 dayanand arya
हर कलाकार अपनी कला के माध्यम से जिंदगी को समझने-समझाने की कोशिश करता है । कहीं एक पहलू तो कहीं दूसरे पहलू को विस्तार देता है ताकि उसकि कई बारीकियों तक हमारी निगाह पहुँच सके । कला के ग्राहक वर्ग में हर एक आम इंसान होता है जो उसमें अपनी और अपने आस-पास की जिंदगियों और उसके व... Read more |
 dayanand arya
क्यूँ ठिठक सा गया वक़्त
मेरी जिंदगी के कैनवस पे
अपनी कूचियों से रंग भरते-भरते।
.... दूर आकाश में चमकते सितारों के
चकाचौंध सपने मैं कहाँ मांगता हूँ-
धूसर मिटटी का रंग तो भर देते।
.... कहीं-कहीं मौके-बेमौके कुछ बारिश-
कुछ हरियाली,
सर के ऊपर एक अरूप आकाश
और आँखों के सामने कु... Read more |
 dayanand arya
कविता के पाठकों का घटते जाना हाल के समसामयिक गोष्ठियों में चर्चा में बना रहता है। लोग चिंतित दिखते हैं की आज अभिव्यक्ति की बढ़ती सुगमता के साथ कविता के लिखे जाने और और उसके आम जान के दृष्टि फलक तक पहुँच में काफी इजाफा तो हुआ है परन्तु उनकी गुणवत्ता में काफी ह्रा... Read more |

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1:17am 3 May 2015 #
 dayanand arya
लिखने को तो जी बहुत कुछ चाहता है
पर डर लगता है
कहीं शब्दों की झाड़ियों में
जिंदगी उलझ कर न रह जाए।
read this in the context of my previous blog post
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 dayanand arya
तुम नहीं हो !
गुलदान कोने में सहमा सा पड़ा है।
मुझसे पूछना चाहता है -
कब आओगे ?
कब जाओगे ?
पर पूछता नहीं।
तरस गया है- जिन्दा फूलों को।
ये प्लास्टिक के फूल-
न खिलते हैं ,
न मुरझाते हैं ,
जैसे के तैसे
समय काट रहे हैं।
समय ही तो काट रहे हैं-
ये गुलदान,
ये दरों-दीवार,
और मैं भी
जैसे क... Read more |
 dayanand arya
1.
अनसुनी यह कौन सी धुन छिड़ रही है
छेड़ता है कौन मन के तार को फिर
अंकुरण किस भाव का यह हो रहा है
जागता क्यों है हृदय में राग नूतन।
भर रहा है दिल भरे मन प्राण जाते
दर्द सा क्या कुछ सुकोमल हो रहा है
हो रहे गीले नयन के कोर हैं क्यों -
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 dayanand arya
निंदिया के घरौंदों में सपनों को बुला लेना
पलकों के किवाड़ों को हौले से सटा लेना ।
टूटे न देखो ये निंदिया …
मोती से नयनों की निंदिया …
सपनों-सपनों मचलती ये निंदिया … ।।
हिडोले पे मद्धम सुरों के - ख्वाबों की अनगिन कहानी
सांसों की तुतली जुबानी - मन ही मन में सुना देना
पलकों ... Read more |
 dayanand arya
टूटे तार
खंड-खंड स्वर
राग विखंडित
क्षिप्त रागिनी
ऐ मृदुले! जीवन के सुर-
संयोजित कर दे ।।
टूटे-फूटे छंद
भाव बिखरे-बिखरे से
रस की सरिता सूखी सी
सब शब्द अनमने
भटका हुआ कहन
कथन ... Read more |
 dayanand arya
मैं सुन नहीं पाया
तुम्हारे क़दमों के लय को
पहचान नहीं पाया
तुम्हारे दिल के तरंग
को
तुम्हारे कंठ के उमंग को
बस इन्तजार करता रहा
कि तुम मेरे लिए
कोई प्रेम गीत गाओगी
और तुम्हारा जीवन संगीत
मेरे लिये अनसुना रह गया।
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 dayanand arya
यूँ चांदनी पीते-पीते हम तुम
किस नशे में उड़ चले हैं
चाँद तक
तारों तक
तारों के एक गुच्छे से दूसरे गुच्छे तक
कई मन्दाकनियों को पार कर
ब्रह्माण्ड के एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक.…
आओ न !....
यहीं, इस मंदाकनी के किनारे
नव-तारों के बागीचे के बीचो-बीच
एक प्यारी सी कुटिया बनाते हैं।
त... Read more |
 dayanand arya
आने वाले तेरा स्वागत !
नवल सूर्य की बंकिम किरणे
करती तेरा फिर-फिर अभिनन्दन।
आने वाले तेरा स्वागत !
नई कोंपलें, नाजुक डंठल
नई उमंगें, नव जीवन रस
पात-पात तेरा अभिरंजित
अभिसिंचित हो ओस कणों से
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 dayanand arya
मुझे समय मत दो...
वो खाली समय
जब मेरे पास करने को कुछ न हो,
सोंचने को कुछ न हो।
जब मेरे इस ऊपरी
बाहर से ओढ़े हुए सतह में
कोई हलचल न हो।
जब वर्तमान परिस्थितियों,
आवश्यकताओं
और कर्तव्यों का नशा,
उसका खुमार
टूटने लगे .…
मैं आप ही अपने अंदर उतरने लगता हूँ;
वहाँ मुझे मिलता है -
एक ... Read more |
 dayanand arya
वो जो मुझे नहीं
मेरे प्यार को पाना चाहे …
मुझे जानने भर में न उलझ कर
मुझे समझना चाहे…
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 dayanand arya
काश कि जिन पन्नों में
तुम मेरा अतीत ढूंढते हो
उनमें तुमने कभी मुझे ढूंढा होता ....
मेरा वर्तमान तो तुम्हारा है ही
फिर मेरे अतीत का भी तुम्ही लक्ष्य बन जाते।
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 dayanand arya
एक अहसास
तेरे पास होने का
सिहरन
तेरी सांसों से छूने सा
खुशबू सी
हवा में यूँ फैल गयी
चटक सा गया हो
कोई फूल अधखिला
जाने क्या था
वो झुकी पलकों सा
चाँद के पार चला
कोई पंछी मनचला
जैसे कुछ कहने सा
वो पलक उठने सा
सूरज से, किरणों से
रौशन था सवेरा
इधर से उधर -
यहाँ से वहां
तूँ जै... Read more |
 dayanand arya
मेरे मन!
तूँ किस पिछड़ी हुई सभ्यता का हिस्सा है ?
जो चाँद में तुझे अपनी माशूका का चेहरा दिखता है;
जो उसे घंटों इस हसरत भरी निगाह से देखता है की -
वह छोटा सा चाँद तेरी आँखों में उतर आये ;
जो उसकी मध्धम सी चाँदनी में तूँ डूब जाना चाहता है ;
जो सहम जाता है तूँ -
उसे किसी दैत्या... Read more |
 dayanand arya
तुझे मेरे लिये नदी बनाना होगा प्रिये !
उनका बहाव भी
और कल-कल स्वर भी ;
फूल भी
पत्ते भी
डालियाँ भी
और पूरा का पूरा पेड़ भी ;
घाँस भी
उनपर पड़ी ओस की बूँदें भी
और उनमे प्रतिबिम्बित स्वर्ण रश्मियाँ भी;
रात भी
चाँद भी
और चांदनी भी ;
धूप भी
सूरज भी
उषा में उसका आगमन भी
और संध्या म... Read more |
 dayanand arya
सोंचता हूँ बहने दूँ मन को
इन मदमस्त हवाओं के साथ
के शायद खुद ढूँढ़ सके
कि यह क्या चाहता है।
के शायद कहीं इसके सवालों का
जवाब मिल जाये
के शायद कहीं इसके ख्वाबों को
पनाह मिल जाये
या फिर यह भूल कर
उन ख्वाबों को
उन सवालों को
रम जाये नए नजारों में।
या घूम आए पूरी दुनिया
देख आय... Read more |
 dayanand arya
तुमने ही तो मुझसे कहा था अनु ! माना कि मैं तुम्हारे track में न पायी पर तुमने ही तो अपना पता लगने न दिया। माना की मैं इधर कुछ महीनों से थोड़ी ज्यादा बिजी हो गयी थी पर तुमने तुमने ही तो कहा था सेवा भाव से पूजा समझ कर अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिये ; और इधर तुमने ही ... Read more |
 dayanand arya
तुम भोले हो
दर्द से अनजान
दिल की भाषा क्या जानो ।
दिल दर्द में पक कर
समझने लगता है दिलों की भाषा-
सुन पता है
दिलों में स्पंदित दर्द;
सम्प्रेषित कर पाता है
अपनी विश्रान्त सहानुभूति-
कभी आँखों के माध्यम से
तो कभी एक हलके से स्पर्श के सहारे;
कभी उतर ... Read more |
 dayanand arya
ऐसे गुजरे वो दिन
जिस दिन मुझे जाना हो -
कि तेरी एक मुस्काती सी छवि
सारे दिन फंसी रहे
मन के किसी कोने में ।
कुछ बातें कर लूँ अपनों से;
दुआ कर सकूँ उनके खैरियत की।
न कोई जल्दी हो
यहाँ से जाने की ,
और न कोई टीस
यहाँ कुछ छूट जाने की ।
हाँ, उस रोज जरूर देख सकूँ
सूरज को उगते ... Read more |
 dayanand arya
हाँ, आज तुम बाहें पसारे
आनंद ले लो
बारिश की बूंदों में भींगने का;
कल जब तुम्हारे सर पे
छत नहीं होगी, तो पूछूँगा -
कि भीगते बिस्तर पे
कैसे मजे में गुजरी रात !
आज देख लो ये रंगीन नजारे
ये बागीचे, ये आलीशान शहर;
कल जब लौट के आने को
कोई ठिकाना नहीं होगा, तो पूछूँगा-
चलो कहाँ चलते ह... Read more |
 dayanand arya
अंधेरों की सनसनाहट
संगीत नही,
भयानक शोर
जो फाड़ डाले कान के परदों को -
अचानक थम जाती है ।
…शायद कोई आसन्न ख़तरा
घुल रहा है हवाओं में ।
… के शायद कोई नाग निकल पड़े झाड़ियों से;
या और कुछ ।
… के शायद मुझे भी चुप हो जाना चाहिए ;
इस विलाप को बंद करके
सतर्क हो जाना चाहिए
उस आसन... Read more |
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