Blog: स्पर्श | Expressions
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 sushil kumar
बाज़ार जब आदमी का आदमीनामा तय कर रहा हो जब धरती को स्वप्न की तरह देखने वाली आँखें एक सही और सार्थक जनतंत्र की प्रतीक्षा में पथरा गई हों सभ्यता और उन्नति की आड़ में जब मानुष को मारने की कला ही जीवित रही होऔर विकसित हुई हो धरती पर जब कविता भी एक गँवार ग... Read more |
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1.तथाकथित अति सभ्य और संवेदनशील समाज मेंसब ओऱ दीवारें चुन दी गई हैंऔर हर दीवार के अपने दायरे बनाए गए हैं इन दायरों -दरो -दीवारों को फाँद कर हवा तक को बहने की इजाज़त नहीं 2.खिड़कियाँ खोलने पर यहाँ कड़ी बन्दिशें हैंक्योंकि अनगिनत बोली, भाषा और सुविधाओं के रंग में र... Read more |
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साभार : गूगल असंख्य चेहरों में आँखें टटोलतीं है एक अप्रतिम चित्ताकर्षक चेहरा- जो प्रसन्न-वदन हो - जो ओस की नमी और गुलाब की ताजगी से भरी हो - जो ओज, विश्वास और आत्मीयता से परिपूर्ण- जो बचपन सा निष्पाप - जो योगी सा कान्तिमय और - जो धरती-सी करुणामयी हो कहाँ मि... Read more |
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(चित्र : गूगल साभार )पचास की वय पार कर मैं समझ पाया कि वक्त की राख़ मेरे चेहरे पर गिरते हुए कब मेरी आत्मा को छु गई, अहसास नहीं हुआ उस राख़ को समेट रहा हूँ अब दोनों हाथों से 2.दो वाक्य के बीच जो विराम-चिन्ह है उसमें उसका अर्थ खोजने का यत्न कर रहा हूँ 3.मेरे पास खोने &nb... Read more |
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कविता शब्दों से नहीं रची जातीआभ्यांतर के उत्ताल तरंगों को उतारता है कवि कागज के कैनवस पर एक शब्द-विराम के साथ/कविता प्रतिलिपि होती है उसके समय का जो साक्षी बनती है शब्दों के साथ उसके संघर्ष का जिसमें लीन होकर कवि जीता है अपना सारा जीवनबिन कुछ कहे, और जीने को अर्... Read more |

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11:53am 26 Sep 2014 #
 sushil kumar
साभार : गूगल लौट आ ओ समय - धार पगली बसंती बयार -देह से घूमते - लिपटते धूल-कण गोधूलि की बेला -लौटते मवेशियों के खुरों से मटमैली होती डूबती साँझउसमें बहते बजते लोक-शब्द सब लौट आ लौट आ ओ समय - धार हाथ की बनी गाँठअब दाँत से भी नहीं खुलती राह में इतनी दीवारें कि घर का पता सब भ... Read more |
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साभार : गूगल घर से चिट्ठियाँ नहीं आतीं जब – तब एस. एम. एस. आते हैं जो कंपनी के अनचाहे एस.एम.एसों. में खो जाते हैं और कुछ दिनों में गायब हो जाते हैं नहीं बचा पाया ज्यादा दिन उन एस. एम. एसों. को भी जिनमें पत्नी ने प्यार लिखा था जिनमें बच्चों की जिद और बोली के अक्स छुपे थे इष्ट-मित... Read more |
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धीरे - धीरेदरक जाएंगी सम्बन्धों की दीवारेंप्यार रिश्ते और फूल बिखर जाएँगेन धरती बचेगी न धात्रीकोशिका की देह में टूटने की आवाजसुनो जरा गौर सेहताशा में नहीं लिखी गई यह कवितामृत्यु में जीवन का बीज सुबक रहा अंखुआने कोअंतर्नाद में प्रलय-वीणा झंकृत हो रहीफिर से ... Read more |
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काठ-घर बेतला में ठहरा हूँ संध्या उतर रही है पहाड़ी छोर पर सब ओरहिरण दौड़ रहे हैं नेशनल पार्क के खुले मैदान की ओर जबकि जाना चाहिए था उन्हें घने जंगलों में गाईड ने बताया शिकार के डर से हर शाम वे चले आते हैं यहाँ जहाँ फटक नहीं पाते शिकारी न तान पाते अपनी बंदूकें इन पर इन हि... Read more |
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गूगल: साभार कहने में तनिक संकोच नहीं किफूल, नदी, प्यार और सपनों से बनी थी अपनी जिंदगीहाँ, सच है कि फूलों के दरमियाँ काँटे भी थेनदी पर्वत का सीना चीरकर उतरी थीप्यार भी सहना कईयों को दुशवार थाऔर सपने सब खुशफहम नहीं थे अपनेपर प्यार के पुल में कभी ... Read more |
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गूगल से साभार कविता के लियेसिर्फ़ शब्द नहीं मुझे हृदय की मौन भाषा चाहिएमन की अदृश्य लिपियों में गढ़ीसुगबुगाते हुए और अभिव्यक्ति को बेचैनभावों के अनगिन तार दे दो मुझेकविता के लियेमात्र आँखों का कँवल नहींउसका जल चाहिए मुझेउनमें पलते सपनों की आहटकोई सुनाओ मुझ... Read more |
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विदा साँझ -पंछी लौट रहे काले बादल घुमड़ रहे विदा दिन - लाल सूरज का अंतिम छोर सरक रहा पहाड़ के पीछे बैल-बकरी-गाय-कुत्ते-भेंड़-सूअरउतर रहे पहाड़ से तराई मेंविदा दिन की थकान –लौट रहा मवेशी हँकाता निठल्ला-मगन पहाड़िया बगालपगडंडियों के रास्ते सिर पर ढेर सारा आस... Read more |
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सब कुछ बना है जैसेबिखर जाएगा वैसे ही एक न एक दिन -न फूल बचेंगे न पत्थरतुम्हारा सौंदर्य मेरे शब्द एक-न-एक दिन बिहर जाएँगेफिर भी बचा रहेगा हृदय के किसी कोने में हमारा प्रेम जैसे बचा रहता है पुराने बीज में भी जीवन हम लौटकर फिर वापस नहीं आएंगे जिन कागजों पर लिखी गई प्रेम ... Read more |
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[चित्र - गूगल से साभार ]एक (1) -लड़की के रूप की रजनीगंघा खिली है अभी-अभीउमंग जगी है उसमें अभी-अभी जीवन का रंग चटका है वहाँ अभी–अभी जरूर उसका मकरंद पुरखों के संस्कारमाँ की ममता,पिता के साहस भाई के पसीने और दादी-नानी के दुलार से बना होगा देखो,कितना टटका दिख रहा ... Read more |
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[चित्र-साभार गूगल ]आओ, दोज़ख़ की आग में दहकताअपनी ऊब और आत्महीनता का चेहरासमय के किसी अंधे कोने में गाड़ देंऔर वक्त की खुली खिड़की सेएक लंबी छलाँग लगाएँ -यह समय मुर्दा इतिहास की ढेर मेंसुख तलाशने का नहीं,न खुशफ़हम इरादों के बसंत बुनने का है दिमाग की शातिर नसों से ब... Read more |
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[ चित्र - गूगल - साभार ]एक –पहले-पहल जब चलना सीखा और माँ की गोद से उतर देहरी पर पहला पाँव रखातो दालान में चिड़ियों को देखा –अपनी चोंच में तिनका दबाये घोंसला बुनने में मगन थीं कभी चोंच से अपने बच्चों को दाना चुगा रही थीं तो कभी चोंच मारकर अपनी बोली में उसे फड़फड... Read more |
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(साभार – गूगल) खुली आँखों में सच होता है बंद आँखों में सपनासपने अदृश्य होते हैंपर बेहद आस-पास होते हैं -जैसे फूल में मकरंदजैसे श्वास में प्राणवायु हालाकि सारे सपने सच नहीं होतेपर सच की कोख से जनमते हैंऔर सच से बड़े होते हैंसपनों में धवल-धूसर कई रंग होते हैं&... Read more |
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धरती जितनी बची है कविता मेंउतनी ही कविता भी साबूत हैधरती के प्रांतरों में कहीं-न-कहींयानी कोई बीज अभी अँखुआ रहा होगा नम-प्रस्तरों के भीतर फूटने कोकोई गीत आकार ले रहा होगा गँवार गड़ेरिया के कंठ में कोई बच्चा अभी बन रहा होगा माता के गर्भ में कोई नवजात पत्ता गहरी नींद कोप... Read more |
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हमारे गाँव-घर,नदी,जल,जनपद और रास्ते कितने बदल गए देखते-देखते इस यात्रा में कपड़े,फैशन और लोगों से मिलने-जुलने की रिवाज़ की तरह कितनी ही अनमोल चीजें रोज़ छूटती गईं हमसे और यादों के भँवर में समाती गईं -किसी का बचपन किसी का प्यार ... Read more |
 sushil kumar
( उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी | )किसी कवि का घर रहा होगा वह.. और घरों से जुदा और निराला चींटियों से लेकर चिरईयों तक उन्मुक्त वास करते थे वहाँ चूहों से गिलहरियों तक को हुड़दंग मचाने की छूट थी बेशक उस घर में सुवि... Read more |
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